भगवान एवं उत्सव सेवा:
- प्रत्येक शुक्रवार श्रीतिरुपतिबालाजी के तिरुमंजन (दुग्धाभिषेक) – 5100/-
- शुक्रवार को भण्डारे का खर्च – 8000/- से 12000/-
- भगवान के श्रृंगार हेतु पुष्प एवं पुष्पमाला (मासिक) – 25000/-
- अष्टोत्तरशत तुलसी अर्चना – 1100/-
- सहस्र तुलसी अर्चना – 51000/-
विशेष उत्सव:
- ब्रह्मोत्सव में एक दिन के यजमान सेवा राशि – 15000/-
- झलोत्सव में एक दिन के यजमान की सेवा राशि – 30000/-
विदित हो कि उक्त प्राणप्रतिष्ठा के अवसर पर ही वृन्दावनस्थ श्रीरंगमन्दिर के अध्यक्ष गोवर्धनपीठाधीश्वर अनन्तश्रीविभूषित श्रीगोवर्धन-रंगाचार्य स्वामी जी महाराज ने श्रीगोविन्दाचार्य जी को यहाँ मन्दिर के मुख्य कैंकर्यकर्ता (महन्त) के रूप में और श्रीजनार्दनाचार्य श्रीनिवास रामानुज दास (जीवन शर्मा) को उनके उत्तराधिकारी के रूप में मंगलाशासन किया।
- तिरुमंजन (अभिषेक) – प्रत्येक शुक्रवार एवं प्रति पुष्य नक्षत्र
- प्रातः 9 बजे से पूजन प्रारम्भ एवं प्रातः 10 से 11 बजे तक अभिेषक
- प्रातः 11से 12 बजे तक – भगवान का विशेष श्रृंगार, भजन कीर्तन एव सत्संग
- मध्याह्न 12 बजे महाआरती तथा उसके बाद 12ः30 – राजभोग (भोजन प्रसाद)
श्रीशालिग्राम (शालग्राम, सालग्राम) स्वयं व्यक्त भगवान् हैं। मानव-निर्मित मूर्ति में शास्त्रीय विधि से प्राणप्रतिष्ठा करनी पड़ती है, तब उनमें देवत्व आता है, किन्तु श्रीशालग्राम स्वयं व्यक्त होने के कारण इनकी प्राणप्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती। इनमें स्वयं ही देवत्व विद्यमान है। ये केवल नेपाल के मुक्तिनाथ, दामोदरकुण्ड और श्रीकृष्णा-गण्डकी नदी में ही प्राप्त होते हैं। श्रीशालग्राम भगवान् की आराधना से सभी कामनाओं की पूर्ति तो हो ही जाती है और उसके बाद मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। विश्व के सभी हिन्दू मन्दिरों में श्रीशालिग्राम भगवान् अवश्य होते हैं, क्योंकि जो हमें प्रतिदिन तीर्थ (चरणामृत) मिलता है, वह श्रीशालिग्राम भगवान् को स्नान कराया हुआ जल ही होता है। शास्त्रें में कहा गया है- शालग्रामजलं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते अर्थात् श्रीशालिग्राम भगवान् का स्नानजल पान करने से पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसे श्रीशालिग्राम अपने आश्रम में 1008 की संख्या में विद्यमान हैं। श्रीवेंकटेश भगवान् के साथ-साथ इनकी भी नित्य आराधना होती है। श्रीशालिग्राम भगवान् में तुलसी से अर्चना का विशेष महत्त्व है। 12, 24, 108 और 1008 नामों से तुलसी एवं पुष्पों से अर्चना होती है। यह अर्चना भक्त जन अपनी ओर से भी करा सकते हैं। अर्चना श्रीवेंकटेश भगवान् की सन्निधि में भी होती है।
108 अर्चना की दक्षिणा 101/- व 1008 अर्चना की दक्षिणा 501/- है। इसमें तुलसी, पुष्प व भोग लगाने का प्रसाद समाविष्ट है।
इसके अतिरिक्त और अधिक भी भोग लगवा सकते हैं।
श्रीवैष्णवसम्प्रदाय में श्री गोदाम्बा जी का व्रत अनिवार्य रूप में अनुष्ठेय है। इसे श्रीव्रत भी कहते हैं। यह व्रत दक्षिण भारत में अवतार लेने वाली श्री गोदाम्बा जी (आण्डाळ) ने किया था। आचार्य एवं आल्वारों के साथ पारार्थ्य का अनुभव करती हुईं श्री गोदाम्बा जी ने श्रीरंगनाथ भगवान को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए द्रविड-भाषा में निबद्ध तिरुप्पावै दिव्यप्रबन्ध की गाथाओं की रचना करके एक माह तक इस व्रत का अनुष्ठान करके भगवान् श्रीरंगनाथ जी को पति के रूप में प्राप्त किया था। वृन्दावन में गोपकन्याओं के द्वारा आचरित कात्यायनव्रत का अनुकरण करके विल्लीपुत्तूर को वृन्दावन, वहाँ के सरोवर को यमुना नदी, वहाँ के वटपत्रशायी भगवान् को श्रीकृष्ण और अपने को एक गोपकन्या मानकर इस व्रत का अनुष्ठान किया था। आपके द्वारा ग्रथित इस ग्रन्थ की पुष्पमाला को न केवल धनुर्मास में अपितु हमेशा प्रपन्न लोगों के द्वारा भगवान् को अर्पित की जाती है। सूर्य के धनु राशि में विद्यमान रहने पर एक माह का धनुर्मासोत्सव अपने यहाँ बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। आधुनिक हिसाब से यह लगभग प्रतिवर्ष 16 दिसम्बर से 14 जनवरी तक रहता है। प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने सन्ध्यावन्दनादि नित्यक्रिया आदि सम्पन्न कर सुप्रभातपाठ, गुरुपरम्परा, तिरुप्पावै, तिरुप्पल्लाण्डु, गोदाप्रपत्ति, गोदास्तुति, उपदेशरत्नमाला आदि का पाठ, अष्टोत्तरशत नामों से तुलसी अर्चना आदि होते हैं। भगवान् एवं गोदाम्बा जी को पोंगल (विशेष खीचड़ी), खीरान्न, हलवा, मालपुआ आदि का भोग लगाया जाता है। कहा गया है कि खीरान्न और हलवा में इतना घी डाला जाय कि गोष्ठी-प्रसाद पाते (ग्रहण करते) समय अंजली में स्थापित प्रसाद से घी निकलकर कोहनी से बहने लगे। तीर्थ-प्रसाद वितरण के पश्चात् गोदाम्बाव्रत के कालक्षेप (प्रवचन) के बाद दैनिक आह्निक पूर्ण होता है। इसे हम सभी शरणागत जीवों को अवश्य करना चाहिए। गोदाम्बा जी के द्वारा भगवान की स्तुति में रचित तिरुप्पावै और विभिन्न स्तोत्रें के साथ श्रीधनुर्मासोत्सव नामक पुस्तक अपने आश्रम से प्रकाशित है। अपने आश्रम में यह उत्सव कोई भक्त एक दिन या उससे अधिक दिन का करवा सकते हैं। अपने आश्रम में धनुर्मास उत्सव का यह कार्यक्रम प्रातः 5 बजे से प्रारम्भ होकर भगवान् की आराधना के साथ सभी पाठ आदि करके विशेष भोग लगाकर ठीक 7 बजे महा आरती होती है और उसके बाद तीर्थप्रसाद वितरण होकर 8 से 9 बजे तक गोदाम्बा के दिव्यप्रबन्ध पर प्रवचन (कालक्षेप) होता है। सभी भक्तों से निवेदन है कि कुछ दिनों का समय निकालकर इसका आनन्द अवश्य लें।
श्रीसम्प्रदाय में वार्षिक उत्सव (स्थापना दिवस) को ब्रह्मोत्सव के रूप में किया जाता है। ब्रह्म प्राप्ति के लिए उत्सव और ब्रह्मा जी के द्वारा सर्वप्रथम किये जाने के कारण इसे ब्रह्मोत्सव कहा जाता है। इसमें भगवान् की विशेष आराधना के साथ तिरुम×जन (विशेष अभिषेक), वेद, पुराण, उपनिषद् आदि सभी ग्रन्थों का पारायण, प्रवचन और भगवान् की सवारी आदि कार्य इसमें होते हैं। अपने आश्रम में प्रतिवर्ष माघ शुक्ल द्वादशी को समाप्त होने वाला यह उत्सव सुविधा अनुसार पाँच या सात दिनों का होगा। इसकी सूचना प्रायः निमन्त्रणपत्र के माध्यम से देने का प्रयास करेंगे। आप सभी भक्तों से निवेदन है कि इसमें उपस्थित होकर अपने जीवन कृतार्थ बनावें। मन्दिर, भगवान् के सभी कार्य श्रीनिवास सेवार्थ न्यास की ओर से आयोजित होंगे
श्रियः कान्ताय कल्याणनिधये निधये{र्थिनाम्।
श्रीवेघड्ढटनिवासाय श्रीनिवासाय मघõलम्।।
कलौ वेङ्कटनायकः अर्थात् कलियुग में वेङ्कटेश भगवान् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने के लिए प्रसिद्ध हैं। श्रीवेंकटेश भगवान् का मूलस्थान आन्ध्रप्रदेश के तिरुपति में विद्यमान है। द्राविड़भाषा में तिरु का अर्थ श्री होता है। अतः तिरपति=तिरुपति शब्द का अर्थ हुआ श्री के स्वामी। भगवान् श्रीविष्णु ही वेङ्कट नामक पर्वत पर विराजमान होने के कारण वेङ्कटेश(वेङ्कटेश्वर), श्रीनिवास आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। श्रीवेङ्कटेश भगवान् का कलियुग में विशेष प्रभाव है।
भगवान् श्रीराम, श्रीसीताजी व लक्ष्मण जी के चौदह वर्ष के वनवास काल के अन्तिम वर्षों में श्रीसीताजी का अपहरण होना विधि का विधान था, क्योंकि किसी स्त्रीजाति के कारण ही रावण का विनाश होना सुनिश्चित था। अतः भगवान् श्रीराम ने भूमिदेवी से प्रार्थना की कि आप अपनी पुत्री सीता को अपने पास रखकर दूसरी सीता जैसी स्त्री मुझे दे दें। तब भूमिदेवी ने वैसा किया और दूसरी सीता जैसी देवी वेदवती श्रीराम को सौंप दिया। रावण ने उन्हीं का अपहरण किया। एक वर्ष के बाद जब रावणवध हुआ और लंकाविजय करने के बाद सीताजी के लिए लोकप्रसिद्ध अग्निपरीक्षा के सन्दर्भ में भूमिदेवी ने अग्नि से पुनः श्रीसीताजी को प्रकट किया और श्रीराम जी को सौंप दिया। इधर जो एक साल से सीता जी का वेष बनाकर लंका में रहने वाली देवी वेदवती ने भी भगवान् श्रीराम से प्रार्थना की कि मैंने भी एक वर्ष से आपको पति रूप में स्वीकार किया है, अतः मेरे साथ आप विवाह कीजिए। तब श्रीराम ने कहा कि देवी! मैं इस अवतार में एकपत्नीव्रत में हूँ किन्तु मैं जब दूसरा अवतार लूँगा, तब आपको पत्नी बनाऊँगा।
कलियुग के आरम्भ में कलि से भयभीत अट्ठासी हजार ऋषिगण नैमिषारण्य में सहस्र-संवत्सर तक चलने वाले सत्र में बैठे थे तो वहाँ आपस में चर्चा चली कि सबसे बड़े देव (ईश्वर) कौन हैं? इस पर परीक्षा लेने के लिए महर्षि भृगु को देवलोक में भेज दिया गया और वे अन्य देवों की परीक्षा लेते-लेते अन्ततः श्रीरमावैकुण्ठ (क्षीरसागर) पहुँच गये। वहाँ भगवान् श्रीमन्नारायण (श्रीविष्णु भगवान्) शेष शÕया पर शयन मुद्रा में थे और श्रीलक्ष्मी जी सेवा कर रही थीं। महर्षि भृगु सीधे जाते हैं और भगवान् के वक्षस्थल पर चरण-प्रहार करते हैं। यह देखकर भगवान् अपनी शÕया से उठ कर भृगु जी के चरण दबाते हुए कहते हैं कि मेरे वज्रसमान कठोर वक्षस्थल पर आपके इतने कोमल चरण टकराये। आपको बहुत पीड़ा हो रही होगी। यह देखकर ऋषि तो आश्चर्य-चकित हो देखते हुए यह माना कि सर्वश्रेष्ठ ईश्वर यही हैं किन्तु श्रीलक्ष्मीजी श्रीनारायण के व्यवहार से रुष्ट हो गयीं और ब्राह्मण को श्राप दे दिया तथा नारायण को भी त्याग कर भूलोक में आकर महाराष्ट्र के कोल्हापुर में तपस्या करने लगीं।
इधर श्रीनारायण भगवान् भी लीला करने हेतु श्रीवैकुण्ठ से पृथ्वीलोक में श्रीवेंकट पर्वत पर बालरूप धारण करके आ गये। वहाँ एक वृद्ध माता वकुलादेवी ने देख लिया और उन्हें ले जाकर अपनी कुटिया में लालन-पालन करने लगीं। उनका नाम श्रीनिवास रखा। ये धीरे धीरे शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे। उधर जिस देवी वेदवती को भगवान् श्रीराम ने दूसरे अवतार में उनसे विवाह करने का आश्वासन दिया था, वे देवी भी राजा आकाशराज की पुत्री राजकुमारी पप्रावती के रूप में अवतार ले चुकी थीं। ये जब बड़ी हो गयीं तो एक दिन भगवान् श्रीनिवास और राजकुमारी पप्रावती का उपवन में मिलन हुआ। बृहस्पतिजी ने शुभ-विवाह का मुहूर्त वैशाख शुक्ल दशमी शुक्रवार को निश्चित किया।
भगवान श्रीनिवासजी ने नारदजी की सहायता से कुबेर जी को सन्देश भिजवाया कि लक्ष्मीजी से अलग होने के बाद श्रीनिवासजी निर्धनता तथा दीनता का जीवन यापन कर रहे हैं। आप कृपया कुछ धन उधार देकर स्वामी के कार्य को सिद्ध करें। स्वामी आपका धन सूद समेत वापस कर देंगे। यह सुनकर कुबेरजी ने श्रीनिवास भगवान् को चौसठ करोड़ तीन हजार तीन सौ निष्क (स्वर्णमुद्रायें) ट्टण के रूप में दे दिया। साक्षी के रूप में ब्रह्मा जी, शंकर जी तथा अश्वत्थ आदि देव थे। भगवान् श्रीनिवासजी सज-धजकर निश्चित तिथि पर देवी, देवता, ट्टषि, मुनि, यक्ष, नर, अप्सराएँ आदि के साथ वरयात्र (बरात) लेकर शेषाद्रि से उत्तर नारायणपुर पहुँचे। आकाशराज तथा धरणीदेवी ने पप्रावती जी का परिणयसंस्कार तथा कन्यादान किया और विधि पूर्ण होने के बाद पप्रावती जी की बिदाई हुई। वहाँ चलकर श्रीनिवासजी ने पप्रावती के साथ कुछ दिनों तक अगस्त्याश्रम में दाम्पत्य जीवन का आनन्द लिया।
एक दिन श्रीनिवासजी तथा पप्रावती के दर्शनार्थ राजा तोण्डमान अगस्त्याश्रम आए और अपने योग्य कोई सेवा की विनती की। श्रीनिवासजी ने शेषाद्रि पर श्रीनिवास-पप्रावती के मन्दिर बनाने की आज्ञा दी। तोंडमान ने भी वराहस्वामी द्वारा प्रदत्त भूमि पर श्रीनिवासजी का सुन्दर मन्दिर बनवाया और श्रीनिवास एवं पप्रावती को समर्पित किया। उसमें भगवान् पप्रावती के साथ निवास करने लगे। एक दिन ब्रह्माजी भगवान् के दर्शन हेतु शेषाद्रि पहुँचे और लोककल्याण हेतु भगवान् से कलियुग के अन्त तक शेषाद्रि में निवास करने का आग्र्रह किया। भगवान ने वरदान दिया कि जो भी भक्त भगवान् के दर्शन हेतु शेषाद्रि आएगा, उसे वैकुण्ठ की प्राप्ति होगी। ब्रह्मा जी ने वहाँ पर भव्य ब्रह्मोत्सव कराया एवं आज भी भगवान के भक्त उसी प्रकार से ब्रह्मोत्सव मनाते हैं।
नारदजी ने लक्ष्मीजी के पास कोल्हापुर उनकी पर्णकुटी में जाकर भगवती पप्रावती जी तथा भगवान् श्रीनिवास जी के विवाह एवं शेषाद्रि के मन्दिर का वृत्तान्त सुनाया। तब लक्ष्मी जी अपनी तपस्या छोड़ भगवान् को पुनः प्राप्त करने के लिए शेषाद्रि पहुँचीं। मन्दिर में पप्रावती जी भगवान् श्रीनिवास की चरणसेवा कर रही थीं, जिसे देख लक्ष्मी जी खिन्न हुईं किन्तु भगवान् ने अपने इस विवाह का रहस्य सुनाया, जिसे सुन लक्ष्मी जी को प्रसन्नता हुई। भगवान् श्रीनिवास ने अपने विवाह में कुबेर से लिए गये ट्टण (कर्ज) के बारे में बताया और उस ट्टण को सूद समेत चुकाने के लिए लक्ष्मी जी से उपाय पूछा तो लक्ष्मीजी ने कहा कि मैं कलियुग में आपके भक्तों को पर्याप्त धन-सम्पन्न करूँगी। वे लोग शेषाद्रि आकर आपको भेंट हेतु पर्याप्त धन दान करेंगे। जिसके द्वारा कलियुग के अन्त तक कुबेर के ट्टण से आप मुक्त हो जायेंगे। जो आपकी इस तरह सेवा करते रहेंगे, मैं उनको हर प्रकार से प्रसन्न रखते हुए उनका भण्डार भरती रहूँगी। इसी कारण आज भी तिरुपति बालाजी में भक्तजन पर्याप्त धन भेंट करते हैं और लक्ष्मीजी भक्तों को धनधान्य से परिपूर्ण करती हैं।
भगवान् ने चिन्तन किया कि मेरे भक्त समय-समय पर ऐसे ही अपने द्वारा किये गए अपराध को क्षमा करने के लिए मेरे पास आते रहेंगे। अतः भगवान् ने अपनी लीला संवरण करने से पहले शिला रूप धारण कर लिया। वहीं शिलारूप तिरुपति बालाजी के नाम से प्रसिद्ध है। आज भी जो भक्त तिरुपति बालाजी के दर्शन कर अपनी भेंट अर्पण करते हैं, भगवान श्रीनिवास उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं और अन्ततः मोक्षस्वरूप श्रीवैकुण्ठ प्रदान करते हैं।
आज के समय में तिरुमला-तिरुपति में अवस्थित भगवान् श्रीनिवास का बहुत बड़ा भव्य मन्दिर है। पहाड़ी पर श्रीनिवास भगवान् और नीचे तिरुपति में श्रीपप्रावतीजी का मन्दिर है। यह विश्व में सबसे बड़ा मन्दिर है। सबसे ज्यादा श्रद्धालु इसी मन्दिर में आते हैं। वर्ष भर अनेक भव्य उत्सव मनाये जाते हैं। आज वैखानस आगम पद्धति और पा×चरात्र आगम पद्धति के समन्वय से यहाँ की नित्य आराधना होती है। हर भक्त जीवन में एक बार वेंकटेश भगवान्, तिरुपति बालाजी का दर्शन करना चाहता है। वेंकट पर्वत पर निवास करने के कारण इन्हें श्रीवेंकटेश या श्रीवेंकटेश्वर कहा जाता है। तिरुपति-तिरुमला देवस्थानम् संस्था द्वारा आज वहाँ का वैभव निरन्तर बढ़ाया जा रहा है। अन्य संस्थाओं के द्वारा भी विभिन्न स्थानों पर भगवान् श्रीवेंकटेश जी के अर्चाविग्रह की स्थापना कराकर उनकी पा×चरात्र आगम पद्धति से आराधना की जा रही है। श्रीवैष्णवाचार्यों के आश्रमों में भी सर्वाधिक श्रीवेंकटेश भगवान् के ही अर्चाविग्रह स्थापित हैं।
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